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Arya Kon the सनातन वैदिक धर्म में आर्य का अर्थ, कौन थे

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आज हमने इस पोस्ट के माध्यम से आर्य का अर्थ, आर्य कौन होते है, और इनकी उत्पत्ति कैसे हुई है. सनातन धर्म में  वेद आर्यों के विषय में क्या कहते है. इनका इतिहास क्या है, इन सब विषयों पर संक्षेप में चर्चा की है।

आर्य का अर्थ

आर्य विश्व की प्रथम व सबसे प्राचीन समुदाय है. इनका जन्म सत्य सनातन वैदिक धर्म से हुआ है.आर्य का अर्थ होता है: विद्वान, श्रेष्ठ, ज्ञानी, उत्तम व्यक्ति। आर्य शब्द वेद से लिया गया है, भगवान ऋग्वेद मंत्र 9.63.5 के माध्यम से आदेश करते है कि- कृण्वन्तो विश्वमार्यम्।। इस मंत्र का अर्थ है कि– विश्व को आर्य बनाओ अर्थात समस्त विश्व को श्रेष्ठ व विद्वान बनाओ, ताकि सम्पूर्ण जगत में बंधुत्व व शांति स्थापित हो सके। 

सनातन धर्म की उत्पत्ति वेद से हुई है, चतुर्मुखी ब्रह्मा के द्वारा वेदों की रचना की गई, उसी परमपिता ब्रह्मा के हाथों में चार वेद – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद विराजमान है। 

प्राचीन भारत में विद्वान लोगों को आर्य कहा जाता था, इसलिए भारत का प्राचीन नाम आर्यावर्त भी है। जब परमेश्वर ने सृष्टि उत्पत्ति की तब पृथ्वी पर मानव सभ्यता भारतीय तिब्बत क्षेत्र से आरम्भ हुई, इसलिए तिब्बत आर्यों का प्रथम निवास था। भारतवर्ष में महिलाएं पुरुषों को आर्य पुत्र के नाम से बुलाती थी, उदाहरण के लिए भगवान राम, भगवान कृष्ण, अर्जुन, आदि सभी महापुरुषों की पत्नी उन्हें उनके नाम से नहीं अपितु आर्य-पुत्र अथवा आर्य-श्रेष्ठ कहकर बुलाती थी।

ऋग्वेद के अनुसार यह भूमि आर्यों को प्रदान की गई है

ऋग्वेद 4.26.2 में इस बात के प्रमाण देखने को मिलते है जिसमें ईश्वर ने कहा है कि अहं भूमिमददामार्याय अर्थात मै यह समस्त भूमि आर्यों(विद्वानों) को दान करता हूँ, दस्यु को नहीं। इसका कारण यह है कि धरती का साम्राज्य व व्यवस्था विद्वान एवं बुद्धिमान व्यक्तियों के अधीन रहनी चाहिए। अगर देश की शासन व्यवस्था दुष्ट, भ्रष्ट व बुरे लोगों के हाथ लग जाये तो समाज में अशांति, अराजकता और बुराई को बोल बाला हो जाता है। इसलिए यह भूमि आर्य जनों को प्रदान की गई है।

आर्य व दस्यु में भेद

वेदों में आर्य और दस्यु के मध्य भेद करने का आदेश देखने को मिलता है। वेद कहता है कि- “विजानह्याय्यान्ये च दस्यव:” अर्थात हे मनुष्यों तुम सब को आर्य एवं दस्युओं का विशेष ज्ञान रखना चाहिए। क्योंकि सभी व्यक्ति आर्य नहीं है, इसलिए आर्य व दस्यु में अन्तर करना सीखे।

अनार्य का अर्थ

प्राचीन काल में भारतीय आर्य(ज्ञानी) व अनार्य(अज्ञानी) में विभाजित थे, अनार्य आर्य का विपरीत शब्द होता है, जो व्यक्ति मूर्ख, अज्ञानी, भ्रष्ट, दुर्जन व अधर्मी होते है उन्हे अनार्य कहा जाता है, राक्षस व असुर भी अनार्य श्रेणी में ही आते है। जो व्यक्ति वेद व धर्म आज्ञा का अनुसरण नहीं करता अथवा उनका अपमान करता है वह अनार्य कहलाता है।

आर्यों की शिक्षा का स्त्रोत

सनातन में आर्यों की शिक्षा का स्रोत वेद है, भगवान ने सभी मनुष्यों का वेदों के माध्यम से ज्ञान तथा विज्ञान प्रदान किया है। वेदों की संख्या चार है जिनके नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद है, इन चार वेदों में तीन प्रकार के मंत्र है। सभी वेदों के अपने उपवेद है, ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद है इसमें खाद्य पदार्थ व चिकित्सा पद्धति का वर्णन है, इसके द्वारा ही समस्त आर्यो ने भोजन का ज्ञान व रोगों का उपचार प्राप्त किया. वर्तमान में भी आर्युवेद की महत्वता ज्यों कि त्यों बनी हुई है।

वेदों में किसी मनुष्य का इतिहास नहीं है, अपितु वेद स्वयं ईश्वर का ज्ञान है। इसलिए समस्त सनातन समाज को वेदों की शिक्षा का अनुसरण करने के लिए कहा गया है। वास्तव में वेद सनातन धर्म का मूल है. वेद कभी नष्ट नहीं होते है, चाहे प्रलय काल हो या अन्य काल ये सदा एक जैसे बने रहते है।

आर्य की भोजन व्यवस्था

आर्य लोग पूर्णतः शाकाहार पर निर्भर रहते थे, क्योंकि सनातन धर्म में मांसाहार वर्जित है, मांसाहार करने से शरीर में तमो गुण की प्रधानता बढ़ जाती है, जिससे मन चंचल हो जाता है, एवं मनुष्य में इन्द्रिय दोष उत्पन्न हो जाता है, जिससे आलस्य, आसक्ति, क्रोध की मात्रा में वृद्धि होने लगती है। इसलिए मांसाहार को असभ्यो, अज्ञानियों एवं राक्षसों का भोजन बताया गया है। 

ईश्वर ने मनुष्य की उत्पत्ति से पहले उसके भोजन की व्यवस्था की है, उसके लिए विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट अनाज, दाल, फल, सब्जियां बनाई है, एवं रोगों से उपचार के लिए औषधि भी प्रदान की है। इसलिए आर्यों के भोजन में शाकाहार, हरी सब्जिया, गाय का घी व दुग्ध पदार्थ सम्मिलित थे। इसके अलावा योग उनकी जीवन का सबसे महत्वपूर्ण भाग था. जिसके माध्यम से निरोगी शरीर व मोक्ष की प्राप्ति की जाती है।

वेदों के अनुसार आर्यों के कर्तव्य व जीवन शैली

  • वेदों का अध्ययन करना, उनकी शिक्षा को मानना एवं उनका प्रचार करना सभी आर्यो का कर्तव्य है।
  • समाज में विराजमान बुराई एवं अशिक्षा को नष्ट करना आर्यों का धर्म है।
  •  वेदों में आर्यो के लिए गौ रक्षा पर विशेष जोर दिया है, क्योंकि गाय गुणों के आधार पर सर्वश्रेष्ठ जीवों में गिनी जाती है, गाय स्वभाव से शांत एवं संवेदनशील होती है, इसका के दूध अत्यंत लाभकारी है, आयुर्वेद में गाय के मूत्र से औषधि भी बनायी जाती है, इसलिए सनातन धर्म में गाय को  वेद गौ(गाय) माता कहा जाता है, शास्त्र गाय का संरक्षण करने का आदेश देता है. वेद कहता है कि अगर गाय की रक्षा के लिए युद्ध भी करना पड़े तो भी पीछे न हटे।
  • समस्त आर्य जन सोमरस औषधि का सेवन करते थे, जिससे उनका शरीर हष्ट पुष्ट, शक्तिशाली एवं निरोगी बना रहता था। सोमरस औषधि विभिन्न प्रकार की औषधियों का समूह होता है. ये औषधियां शरीर के लिए अत्यंत लाभकारी होती है। 
  • आर्यों का कर्तव्य है कि धर्म व सत्य की हानि न होने दे उसकी सदैव रक्षा करें। गीता में भगवान कृष्ण ने भी धर्म की रक्षा करने का आदेश दिया है- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
  • सनातन धर्म में सभी आर्यों का कर्तव्य है कि वे दैनिक यज्ञ(अग्निहोत्र यज्ञ, कर्म यज्ञ, दैनिक यज्ञ, आदि) करें। यज्ञ करने से आसपास के वातावरण की शुद्धि होती है, एवं आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त होते है। 

सनातन वैदिक धर्म में आर्य के लिए यज्ञ का महत्व 

वेदों एवं उपनिषदों दोनो में प्रत्येक विद्वान व सभ्य व्यक्ति को यज्ञ करने का आदेश दिया गया है, मुण्डकोपनिषद् के अनुसार जो व्यक्ति दैनिक यज्ञ नहीं करता अथवा अधूरी विधि से यज्ञ करता उसके सात लोक नष्ट हो जाते है, और उसे ब्रह्म लोक की प्राप्ति तो कतई नहीं हो सकती है। 

यज्ञ की अग्नि में विभिन्न प्रकार की औषधि व घृत(घी) डालने से उसका धुआं वातावरण में फैलता एवं सांस के द्वारा यज्ञशाला में उपस्थित लोगों के भीतर भी जाता है।  जिस स्थान पर यज्ञ किया जाता है, उस स्थान व आसपास का क्षेत्र सुगंधित एवं शुद्ध हो जाता है।

यज्ञ करने से वायुमंडल में गैसों का संतुलन बना रहता है, संक्षेप में इसके पीछे का सूक्ष्म कारण यह कि, जब सभी घरों में प्रतिदिन यज्ञ किया जाये तो यज्ञ में डाली गई औषधियों व घी के कारण धुआं प्रदूषण के स्तर को कम कर देता है, एवं ऑक्सीजन के स्तर को बढ़ा देता है। जिससे वर्षा समय पर होती है, शीत, ग्रीष्म, वसंत आदि ऋतुओं में पर्याप्त संतुलन बना रहता है। इसलिए यज्ञ करना महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य है।

यज्ञ द्वारा विशेष कार्यों की सिद्धि एवं प्राप्ति भी की जाती है, वेद मंत्रों के द्वारा धन, यश, दीर्घायु , संतान, सुख-संपत्ति, शांति आदि की आहुति यज्ञ में डाली जाती है।

यज्ञ दो प्रकार के होते है ऐच्छिक व निष्काम यज्ञ। इन्हे करने के विभिन्न माध्यम है जैसे- अग्निहोत्र यज्ञ, कर्म यज्ञ, दैनिक यज्ञ, पितृ यज्ञ, साप्ताहिक यज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ(यहां बलि का अर्थ पशु अथवा अन्य जीव की हत्या नहीं होता, अपितु चींटी, कुत्ता, कौवे आदि को भोजन व अन्न प्रदान करना होता है।)

भगवान कृष्ण ने गीता के माध्यम से सभी यज्ञों में कर्म यज्ञ को सर्वश्रेष्ठ बताया है. अपने कर्तव्यों का धर्म पूर्वक पालन करना एवं निष्काम कर्म करना ही सभी यज्ञों में सर्वोत्तम है।

वेदों में आर्य शब्द के प्रमाण

ऋग्वेद 7.5.6 मंत्र में  

त्वे अ॑सु॒र्यं१॒॑ वस॑वो॒ न्यृ॑ण्व॒न्क्रतुं॒ हि ते॑ मित्रमहो जु॒षन्त॑ ।

त्वं दस्यूँ॒रोक॑सो अग्न आज उ॒रु ज्योति॑र्ज॒नय॒न्नार्या॑य ॥ ऋग्वेद 7.5.6॥

यहा पर दूसरी पंक्ति में आर्य शब्द देखने को मिलता है- अ॒ग्ने॒ आ॒जः॒ उ॒रु ज्योतिः॑ ज॒नय॑न् आर्या॑य ।।

हे (मित्रमहः) मित्रों में बड़े (अग्ने) अग्नि के तुल्य सब दोषों के नाशक ! जिस (त्वे) आप परमात्मा में (वसवः) पृथिवी आदि आठ वसु (असुर्यम्) मेघ के सम्बन्धी (क्रतुम्) कर्म को (नि, ऋण्वन्) निरन्तर प्रसिद्ध करते हैं तथा (जुषन्त) सेवते हैं जो (त्वम्) आप (आर्याय) सज्जन मनुष्य के लिये (उरु) अधिक (ज्योतिः) प्रकाश को (जनयन्) प्रकट करते हुए (ओकसः) घर से (दस्यून्) दुष्ट कर्म करनेवालों को (आजः) प्राप्त करते हैं उन (ते) आपका (हि) ही निरन्तर हम लोग ध्यान करें ॥

हे मित्रों में बड़े अग्नि के तुल्य सब दोषों के नाशक ! जिस आप परमात्मा में पृथिवी आदि आठ वसु मेघ के सम्बन्धी कर्म को निरन्तर प्रसिद्ध करते हैं तथा सेवते हैं जो आप (आर्याय)सज्जन मनुष्य के लिये अधिक प्रकाश को प्रकट करते हुए घर से दुष्ट कर्म करनेवालों को प्राप्त करते हैं उन आपका ही निरन्तर हम लोग ध्यान करें।

ऋग्वेद 9.63.5 मंत्र में

इन्द्रं॒ वर्ध॑न्तो अ॒प्तुरः॑ कृ॒ण्वन्तो॒ विश्व॒मार्य॑म्

अ॒प॒घ्नन्तो॒ अरा॑व्णः ॥9.63.5॥

(इन्द्रम्) शूरवीर के महत्त्व को (वर्धन्तः) बढ़ाते हुए और उसको (अप्तुरः) गतिशील (कृण्वन्तः) करते हुए और (अराव्णः) सब शत्रुओं को (अपघ्नन्तः) नाश करते हुए (विश्वं) सब प्रकार के (आर्यम्) आर्यत्व को दें.

हे ईश्वर शूरवीर के महत्त्व को बढ़ाते हुए और उसको गतिशील करते हुए, और सब शत्रुओं को नाश करते हुए सब प्रकार के आर्यत्व को दें।

क्या आर्य विदेशी है?

नहीं, आर्य तो प्रथम भारतीय जन है. शास्त्रों में भगवान राम, भगवान कृष्ण को आर्यपुत्र कहकर संबोधित किया गया है। वेद ईश्वरकृत है, एवं सनातन धर्म का आधार है, भगवान ब्रह्मा के हाथो में वेद स्थिति है,  स्वयं वेद में आर्य शब्द का वर्ण आता है। भगवान ऋग्वेद मंत्र 9.63.5 के माध्यम से आदेश करते है कि- कृण्वन्तो विश्वमार्यम्।। अर्थात विश्व को आर्य बनाओ।

आर्य किस जाति मे आते है?

पहले तो ये बात अच्छे से जान लि कि आर्य कोई जाति, मत अथवा पंथ नहीं होती है, आर्य का अर्थ विद्वान(Intelligent) अथवा सभ्य लोग होता है। सभी सनातन वैदिक धर्म को मानने वाले आर्य कहलाते है. इसलिए भारत का पुराना नाम आर्यावर्त भी है,और जो व्यक्ति वेदों को नहीं मानते वे अनार्य होते है।

क्या आर्य भारत के मूल निवासी है?

हाँ, बिल्कुल आर्य भारत के मूल निवासी है. ये प्रथम भारतीय है, आर्यों की उत्पत्ति भारतीय तिब्बत क्षेत्र से हुई थी और यह समस्त आर्यावर्त व विश्व के कुछ अन्य जगहो में फैल गये। आर्यों के अलावा भारत व अन्य स्थानो पर राक्षस(धूर्त, मूर्ख, अज्ञानी, असभ्य) भी पाये जाते थे।

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